Friday, December 31, 2010

पोर्ट्रेट-2

DSCN1445

साँस ले रही थी,
कल देखी,
एक पुरानी ज़िंदगी...
 
फुट पाथ पर ,
दीवार सहारे ,
भरी दुपहरी,
धूप में तपती ,
बरसों से बेख़बर पड़ी थी
एक पुरानी ज़िंदगी....
 
धंसा  पेट पीठ में,
और फैली थी छाप ,
गुजरे बरसों की
सारे जिस्म पर,
और वक्त की झुर्रियों में
चेहरा उसका छुप गया था,
भीड़ में खोई और बेनाम
एक पुरानी ज़िंदगी .....
 
सिरहाने के थैले से
झाँक रहा था एक खिलौना ,
खाली डिबिया, एक फ्रेम
जिसमें तस्वीर नहीं थी,
चिपकी थीं कुछ यादें
सपनों की, पैबंदों में ,
बेशुमार दौलत सम्हालती ,
एक पुरानी ज़िंदगी.....
 
शब्द सारे किसी कोठरी में ,
शायद उसके छूट गए थे ,
एक शब्द "बेटा" बतौर निशानी
उसके साथ बचा था  ....
हाथ से लगी एक कटोरी
आँखों में कुछ पानी भी था...
पीकर जिसको काम चलाती
एक पुरानी ज़िंदगी...
 
आवाज़ें नहीं पहुँचती उस तक,
जैसे बहुत दूर आ गई
दिखती नहीं किसी को
न उसे कोई नजर आता था
सत्तर सालों की कहानी ,
लाठी संग वहाँ पड़ी थी,
देख आसमां किसे बुलाती
एक पुरानी ज़िंदगी....
 
साँस ले रही थी,
कल देखी,
एक पुरानी ज़िंदगी......
............रजनीश (31.12.2010)

Tuesday, December 28, 2010

हस्तरेखा

रेखा -ओ- रेखा ,
मैंने तुझको देखा......
तू धारा है इक नदिया की
निकली तू मणिबंध से
और पहुँच गयी अनामिका तक-पर   है क्यूँ  तू कटी-फटी ?

रेखा-ओ-रेखा ,
मैंने तुझको देखा..............
तू है इक पगडंडी -
गुरु पर्वत की तलहटी से 
शुक्र के घर का  लगाती चक्कर
पूरी जमीन पार कर गई-पर कितना हूँ जिंदा मैं  ?

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा......
तू  लकीर है  इक जख्म की
देख तुझे  लगता है जैसे ,
 हृदय पर तू   कटार से खिंची
तुझमें तो धड़कने नहीं , हंसने रोने का हिसाब है

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा....
तू तो रेल की पटरी लगती
बना रखा है इक सम अंतर ,
दिल तक जाती रेखा से
पता नहीं तुम पर चलूँ या  गुजरूँ बगल के रस्ते से।

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा .....
जैसे लाइन खिचीं कागज पर ...
नहीं थी  कल  तू  यहाँ
आज क्यों यहाँ आई है  ?
मैंने क्या  बुलाया  तुम्हें या खुद ही निकल आई है  ?

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा ......
है तू  रेत का समंदर,
अपने कदमों की छाप देखता हूँ तुम पर  
पर एक छोर तेरा अब तक कोरा ...
पहुंचूँ वहाँ तक तो क्या तू  मिलेगी  ?

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा
बना रही  जाल मिल और कई रेखाओं से
किसने खींचा है तुझे ,
क्या मैं तुझे  मिटा न पाऊँगा
खड़े कर ले अवरोध मैं तो पार निकाल कर जाऊंगा
......रजनीश (28.12.2010)

Monday, December 27, 2010

पोर्ट्रेट-1

IMAG0302
आइनों सी टाइल्स  पर पड़ती
बड़े फानूसों की  रोशनी में,
उसका प्रतिबिंब नज़र आया मुझे ,
लकड़ी से बनी एक डिज़ाइनर कुर्सी
पर उसे बैठे देखा था ...
एक भोली सी - कुछ अधेड़ सी लड़की...
स्वर्ग सदृश , सुवासित माहौल में,
सुमधुर संगीत
खूबसूरत दीवालों से टकराकर ,
सतरंगी रोशनियों के साथ
फैला था हर तरफ,  प्रस्तुत करता एक नृत्य ...
वैभवशाली चहल-पहल में ....एक  आनंदोत्सव चल रहा था ...
उस मॉल में ....

मैं मौजूद था वहाँ इसका एक-एक पल जीने...
और मेरी नजर पड़ी थी उस पर, 
पर नजरें उसकी , पता नहीं कहाँ
अटकी हुई थीं,
उसके सामने धरी कॉफी टेबल तो खाली थी ,
फिर पता नहीं उसकी आंखे क्या पी रही थीं ,
वो तो हिल भी नहीं रही थी कुर्सी से ,
पर मुझे लगा की वो चल रही थी,
इधर-उधर गलियारे में ,
थिरकती हुई नृत्य भी कर रही थी...
हाथ तो खाली थे उसके और
उनमें से एक तो ठोड़ी पर ही था,
पर मुझे लग रहा था जैसे वो
तैरती  रोशनी को थामने की कोशिश कर रही थी,  
फिर एक शून्य भी दिखा था चेहरे पर लटका ,

तब  मैं अपने घुटनों पर हाथ टिकाकर
कुछ करीब से देखने लगा था उसे ,
वो खूबसूरत लग रही थी –एक
इंसान की तरह...
शायद किसी ने सराहा नहीं उसे कभी....
आँखों में भंवर थे कुछ उसके
और चेहरे पर चस्पा थी एक हंसी -काफी बारीक सी ,
मोनालिसा की याद आ गई...

फिर थोड़ा और करीब आ गया मैं उसके
और करीब से देखने ...
न तो वो संगीत की धुन पर नाच रही थी,
न ही वो कांच की अलमारियों में
रोशनी से नहाते जेवरों को देख रही थी ,
न ही लगती थी वो जुड़ी कहीं से,
ऐसा लगा
शायद वो तो थी ही नहीं 
वहाँ

क्या जरूरत है मुझे उसके
बारे में सोचने या जानने की,
मैं इसी उधेड़बुन में थोड़ा
परेशान सा होने लगा था,
इस जगमग के किसी हिस्से में
तो होगा उसका सपना
या फिर उसकी खुशी,

यही सोच रहा था,
तभी एक खूबसरत राजकुमार से
प्यारे बच्चे के साथ आई
सुंदर कपड़ों में लिपटी एक नारी
लिए ढेर सारा समान ,
यही तो वो सबकुछ था ,
जिसकी देखरेख का जिम्मा था इस लड़की पर
सम्हालने लगी जिन्हें वह लड़की,
मालकिन ने फिर एक कॉफी भी
रखवा दी उसकी टेबल पर ...

फिर कुछ समय बाद , सब कुछ उठा ,
वह 
चल पड़ी ....
उसकी  चाल बता रही थी
कि  वो अपनी दुनिया में
वापस लौट रही थी....
उसके जाने के बाद
उस खाली पड़ी कुर्सी पर
मैं उसे बहुत देर तक देखता रहा....
IMAG0082
.........रजनीश (26.12.10)

Tuesday, December 21, 2010

लम्हे











आपकी याद में जिये जाएँ ,
गुजरे लम्हों को हम पिये जाएँ ।

उन लम्हों की वफ़ा कम न हुई ,
आज भी उतने ही अपने है, मेरे ।
इस अपनेपन में ही मरें जाएँ ,
उन लम्हों में बस जिये जाएँ ।

आपकी याद में जिये जाएँ ....

आज की ये खुशी , मेरी दरअसल ,
बीते लम्हों से ली उधारी है,
गम में जीने से तो बेहतर यारों,
उनके कर्जों तले दबे जाएँ ।

आपकी याद में जिये जाएँ ....
..........रजनीश (02.09.93)

Monday, December 20, 2010

प्रार्थना


 हे प्रभु!!
करते क्यूँ  तुम,
कोशिश दिल में बसने की ...
घुस न सको तुम इधर
कभी ,
इसलिए दी गद्दी ,
मंदिर की ...

रखा तुम्हें है
मंदिर में,
भय-दुख में तुमको खोज सकूँ,
और सुख में
कर दरवाजे बंद,
सूरत तेरी मैं भूल सकूँ ...

तुझे रखा है ,
पर्दे में ,
तुझसे छुपकर ,
दुष्कर्म करूँ ,
और हो इच्छा जब
मेरी , मैं तुझसे संपर्क करूँ ...

नहीं है ताकत , घबराता हूँ,
दर्द नहीं सह पाता हूँ,
अपनी कमजोरी से हो व्याकुल,
तुमको फिर मैं बुलाता हूँ....

पर जब सब कुछ  ठीक चल रहा,
हो दिवाली  बस्ती में ,
कौन बुलाये तुम्हें यहाँ जब,
माहौल भरा हो मस्ती में ...

रखता नहीं तुम्हें हमेशा,
जरूरत पर ही बुलाता हूँ,
स्थापित कर तुम्हें,
विसर्जित , मैं फिर कर आता हूँ ....

नहीं जरूरत मुझे तुम्हारी
खुशगवारी की सूरत में,
इसीलिए रख छोड़ा तुमको ,
इक पत्थर की मूरत में,

पत्थर में ढाला है तुम्हें,
कि, मनमानी तुम कर न सको,
रहो वहीं तुम जकड़े
मेरा बाल भी बांका कर न सको...

घुस गए अगर तुम अंदर मेरे   ,
तो मेरा सब खत्म हो जाएगा,
फिर इस दुनियादारी के
जंजाल का जिम्मा कौन उठाएगा?
..............रजनीश (20.12.2010)

Wednesday, December 15, 2010

कश्मकश















कभी विचार करते हैं क्रंदन ,
और फिर मैं लिखता हूँ,
कभी सोच को जीवन देता हूँ,
कभी लिख कर सोचने लगता हूँ लाइनों का भविष्य ,
कभी लिखता हूँ और कुछ उतरता नहीं ख्यालों में ,
कभी सोचता हूँ तो कलम फंसी रह जाती है
लाइन पर बने गड्ढे में ,

मैं कभी महसूस करता हूँ
किसी क्षण का कंपन,
और वो जाकर बैठ जाते हैं लाइनों की दहलीज पर ,
कभी चलती है कलम बिना किसी झंकार के,
कभी एहसास  बयान हो जाता है,
कभी लिखते हुए महसूस होता है स्याही का नृत्य,
कभी लाइनों से छिटक हाथ पर भी आ जाती है स्याही ,

कभी महसूस होता है कुछ,  और कलम रुक जाती है,
कभी जो सोच में घटता है , एहसास में नहीं होता,
कभी एहसास का चेहरा ही नहीं पढ़ा जाता ,
कभी होता है सोचने का एहसास,
कभी सोच, सिर्फ सोच रह जाती है संवेदना शून्य,
और कभी एहसास हो जाते हैं बेमानी,

कभी सोचता हूँ कुछ, लिख जाता हूँ कुछ और,
कभी लिखते-लिखते, एहसास ही बदल जाता है,
कभी शब्दों पर फैल जाती है स्याही ,
कभी लाइनें ही टकरा जाती हैं आपस में ,
लड़ बैठती हैं और शब्द भाग जाते हैं ...

इसी कश्मकश में रोज
मैं किसी कविता का करता हूँ नामकरण
या फिर उसे देता हूँ  मुखाग्नि....
.....रजनीश (15.12.10) 

भविष्यफल


 तुमने कभी
धूप का स्वाद चखा है ?
नहीं ...

तुमने कभी
हवा को पढ़ा है ?
नहीं...

तुमने कभी
महसूस की है आग की ठंडक ?
नहीं ....

तुमने कभी
लहरों को देखा है, रोते ?
नहीं ...

तुमने कभी
त्रिकोण में उगते चौथे कोने से बातें की है ?
नहीं ....


तुमने कभी
बहस की है , परछाईं से?
नहीं ...

तुमने कभी
अंधेरे को हथेली पर रखा है ?
नहीं ...

तुमने कभी
किरणों को बंद किया है डब्बे में ?
नहीं ...

तुमने कभी
आंसुओं के घर में कदम रखा है?
नहीं ....

क्या कहूँ मित्र,
किस्मत वाले हो ...
फूल का पता नहीं ,
कांटे नहीं
लगेंगे तुम्हें
मजे में
कटेगी
तुम्हारी ज़िंदगी ....
....रजनीश (15.12.10) 

एहसास


जिसके इंतजार में
मरते हैं अनगिनत बरस ,

उन कुछ पलों में
गुजर जाती है,
एक पूरी जिंदगी ।

और फिर
रह जाते है
एहसास
सँजोकर रखने ,

बटोरना हो,
तो ढूँढना पड़ता है इन्हें
और  थामना होता है कसकर
नहीं तो,
चंचल होते हैं  -
फिसल जाते हैं ।

ये नहीं होते विलीन
पाँच तत्वों में ,
और रह जाते हैं
कागज पर खिंची लाइन में  ,
छत की मुंडेर पर ,
नहीं तो फिर
डोर पर टंगे
धूप सेंकते
................................रजनीश ( 14.12.2010)

Friday, December 10, 2010

सपना , एक जमीन का.....

this is about dream of a land..and so to say the dream of the writer, thats me!!

its about a barren land in Gujarat surrounded by trees, agri. fields and located on the sides of a small river stream!! एक श्मशान भी था पास में । और एक गाँव से लगी हुई थी ये जमीन ... I was there for constructing one big electrical sub station and i wrote this in 1999 just after joining here on transfer /मैंने इसे काम शुरू होने से पहले लिखा था , वो समय थोड़ा uncertainity भरा था , प्रोजेक्ट की शुरुआत को लेकर । लगता था शायद प्रोजेक्ट शुरू ही नहीं होगा ... इसी माहौल में इस जमीन को देखकर अजीब सा एहसास होता था ...जैसे पड़ोस की कोई अधेड़ होती बिनब्याही हो सपने पिरोते .....

Now on that barren land, stands a modern technical marvel amidst beautifully done landscape !!! its dream come true….ये कल्पना के सच होने की कहानी है ...मैंने इसे साकार होते देखा है और इस परिवर्तन (transformation) का हर एक पल इस जमीन के साथ जिया है ...

DSCN1410

हरे घने पेड़ों और लहलहाते खेतों के बीच मिली ,

थी शून्य में ताकती , ऊँघती सी एक अकेली जमीन ...

नदिया की कल कल सुनती ,

बैठी रहती थी किनारे पर,

देखा करती थी , इंसान को जीते/ मरते अपने में समाते ,

यूं ही देखे थे उसने कई बसन्त और झुलसी थी गर्मियों में ,

बरसातों में रोई थी ,

एक गवाह थी वो, मूक , सारे जीवन-चक्र की ,

थे कुछ सपने इस अकेली के - बनते - बिगड़ते - बिखरते ,

यहाँ - वहाँ पड़े , कुछ खो गए थे - रात की स्याह गहराइयों में ,

इन्हें खोजते, बटोरते, सम्हालते पड़ी रहती थी एक जमीन ,

IMAG0537

फ़िर , हुई एक सुबह ,

अनूठी सी  , कुछ अलग ...

समेटा उसने जमीन को अपने सुनहले आगोश में ,

चिड़ियों ने गाया गाना , पत्तों ने दी ताल,

और मिलाए कदम पुरवैया ने ...

और नाच उठी थी वह ,

होने वाला था  साकार उसका सपना ,

मिलना था उसके अस्तित्व को एक आयाम ...

जमीन का सपना ...इंसान का सपना था ,

वो तो थी ही उसके लिए/ करने सच उसका सपना ...

सपना था एक ऐसे मंदिर का ,

जो करेगा संचार शक्ति का,

जो होगा मील का एक पत्थर ,

विकास के पथ पर ...

उगेंगे इस जमीं पर अब लोहे के जंगल ,

गुंथे आपस में तारों से ,

जो देंगे साँसे ज़िंदगी को ,

खो जाएगी ये जमीन ,

और जुड़ जाएंगे गाँव से गाँव,

देश से देश और दिल से दिल .....

....रजनीश ( 27.11.1999)

Tuesday, December 7, 2010

मैं (पुन:)

माफ कीजिएगा , पुन: एक पुरानी पोस्ट ...

क्या ये मैं हूँ,mysnaps_diwali 019
ये तो प्यार की चाहत है,
जो करती है प्रेम !
ये देने वाला मैं नहीं ,
ये तो इच्छा है , पाने की;
ये मैं नहीं ,
बेबसी जो करती है गुस्सा;




mysnaps_diwali 005ये मैं नहीं ,
विचार कर रहे संघर्ष;
ये मैं नहीं,
डर है, जो दिखाता अपनापन ;
ये मैं नहीं
है  कमजोरी , जो करती है हिंसा


021209 212

ये मैं नहीं ,
अज्ञान है जो करता विवाद;
ये मैं नहीं ,ये तो  दंभ है
जो लड़ता है किसी और दंभ से ...
ये मैं नहीं ,
ये अधूरापन है जो
करता है ईर्ष्या,

mysnaps_diwali 006
ये मैं तो नहीं ,
खुश होती केवल इंद्रियां ,
ये मैं  नहीं,
तुम्हें बुरी लगती है
मेरी बोलने की आदत;


 DSCN1674
तुम्हें मुझसे नहीं ,
ईर्ष्या है  विजय से;
तुम मुझसे नहीं,
नाराज हो दंभ से;
ये मैं नहीं,
शायद तुम्हें पसंद है  सादगी ,



DSCN1678ये मैं नहीं ,
शायद  संगीत तुम्हें नचाता है,
ये मैं नहीं,
तुम्हारा विरोध है परिस्थिति से,
ये मैं नहीं ,
तुम शायद खफा हो किस्मत से,


IMAG0487

ये मैं नहीं ,वो मै नहीं,
फिर मैं हूँ कौन?
मैं क्या हूँ...
याने  ...रजनीश!!
नहीं...ये तो संज्ञा है, एक संबोधन ...
भावनाओं /परिस्थितियों की एक गठरी का  नाम है
'पर ये सिर्फ मेरी तो नहीं तुममें भी हैं , तुम्हारी भी हैं ....
फिर मैं कहाँ हूँ ?
और बाई-दि-वे, तुम कहाँ हो ??
.....रजनीश (06.12.10)

Monday, December 6, 2010

चाहत

DSCN1435
सोचता हूँ,
क्यों चाहूँ तुम्हें,
आखिर क्यों ?
चाहत , ये क्या है ?
पूछा जिंदगी से ...
तुझे कुछ पता है ?
021209 204




हँस के कहा उसने,
इसी बात से परेशा है ? 
बस इन चाहत के फूलों को हटा दे,
और इन फूलों की बगिया को मिटा दे ...



021209 136उखाड़ फेंका मैंने उन्हे
और ज़िंदगी को निहारा
पर उस जगह कुछ और ही समा था
खाली जमीन और खुला आसमाँ था ...
बस कुछ टुकड़े जिंदगी के बिखरे हुए थे....
टूटी डालों और पत्तों संग जमीं पर पड़े थे


021209 015



उखड़ती साँसों से उसकी आवाज आई ,
हँसते हुए अपनी दास्तां सुनाई ...
बिखरी हूँ इनमे मैं कैसे दिखूंगी
मैं जन्मी थी इनमे और इन संग मरूँगी ...
.....रजनीश

Sunday, December 5, 2010

बदलाव

DSCN1379
है जिंदगी  वही ,पर  मायने बदल गए,
हैं चेहरे वही पुराने पर आईने बदल गए॰

है सूरज वही है चाँद वही , है दिन वही है रात वही,
है  दुनिया वही , पर दुनियादारों के ठिकाने  बदल गए॰




DSCN1439

है साकी वही है शराब वही, है पैमाना औ मयखाना वही 
है हमप्याला वही , नशे के पर अंदाज बदल गए॰

वही पैर वही जिस्म, वही ताकत वही हिम्मत,
है दौड़ का जज़्बा वही, पर दौड़ के मैदान बदल गए॰




DSCN1443
है शोहरत वही, है शराफत वही, है इज्ज़त औ मोहब्बत वही,
कायम रही है मंजिलें पर रास्ते बदल गए॰

है सच वही है झूठ वही, है पुण्य वही है पाप वही,
है  धरम औ इंसाफ वही, पर इनके तराजू बदल गए ,

.......रजनीश (13.12.93)

Friday, December 3, 2010

एक बादल से मुलाक़ात

DSCN1762

आज सुबह का मौसम

कितना सुहाना था !

किसी कवि की साकार कल्पना की तरह,तभी

अचानक बादलों ने सूरज को ढका

और बारिश शुरू हो गयी थी...

खिड़की से झाँककर देख रहा था मैं ,

बड़ी बड़ी बूंदें /

बरबस अपना हाथ बढ़ा, खिड़की से बाहर

हथेली पर थाम लिया  मैंने बूंदों को ;

इच्छा हुई और चख लिया था  ...

स्वाद का खारापन , अचंभित करने वाला था ,

तभी दिखी बिजली की एक चमक और गूँजा बादल का क्रंदन,

फिर ,मैंने पूछ ही लिया बादल से इस खारेपन का कारण;

DSCN1763

उसने बताया ,

" ए दोस्त,

मैं एक अकेला बादल ,

छोटा सा,  बरस जाना चाहता हूँ

धरती पर ,

लेकिन कितना घिरा हुआ हूँ मैं,

जैसे कोई वजूद ही नहीं मेरा ...

और कई बादल घेरे हुए मुझे;

उधर से आते काले घने - संकट के बादल हैं ,

और इधर उमड़ते घुमड़ते ये भीमकाय ...

दरअसल सामान हैं -जलाने का ;

वो सामने धरती पर छा रही घटा - भय और आतंक की,

और उन, दूर तक दिखते दुख के बादलों से

तो तुम वाकिफ होगे,

DSCN1752इन सबके बीच मैं कुछ नहीं

जो हटा सके इन्हे  ऊपर से धरती के ,

मेरा अस्तित्व ही धरती से है ,

पर मैं और मेरी संगिनी, असहाय देखते हैं सब,

और सिवा आँसू के कुछ दे नहीं पाते"

मैं सुन रहा था

बादल को,

पता नहीं कब

चल पड़े थे आंसू ,

मेरी आखों से /

हथेली पर मौजूद खारी बूंदों से उनके मिलन

से जैसे भंग हुई मेरी तंद्रा ,

और फिर देखा मैंने बाहर खिड़की से,

बारिश अब भी बदस्तूर जारी थी .......

......रजनीश (20.08.1992)

Wednesday, December 1, 2010

यादें

IMAG0619
रस्ते में मिलते पत्थरों को गिना करता हूँ
बढ़ती दूरियों के एहसास की हर सांस गिना करता हूँ ...
रस्ते की धूल का एहसान ये, मुझ पर यारों
गुजरते कदमों के निशान लिए रहती है
निशानों के इस समंदर में खड़ा
कदमों की हर छाप गिना करता हूँ
रस्ते को छांव देते दरख्त यादों के
हर मौसम , हर साल बढ़ा करते हैं
पत्ते पत्ते पर लिखी कहानियाँ यादों की
पीले पड़ते उन पत्तों को गिना करता हूँ

....रजनीश

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....