Monday, April 18, 2011

साँप-सीढ़ी

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विचारों  की सीढ़ियाँ
सीधी नहीं होतीं,
इनमें फिसलन भी होती है,
पायदानों पर  उगती-टूटती, नयी-पुरानी ,
साथ लगी होती हैं भावों की सीढ़ियाँ ...

ये सीढ़ियाँ एक दूसरे से जुड़ीं,
कुछ ऊपर जातीं,
कहीं कुछ 'पाये' होते ही नहीं,
कुछ पाये बड़े कमजोर होते हैं,
कोई हिस्सा बस हवा में होता है,
कुछ नीचे उतरतीं सीढ़ियाँ ...

कुछ हिस्से दलदल में,
कुछ मजबूती से बंधे जमीं से,
बीच होते हैं साँप भी,
- कुछ छोटे और कुछ बहुत बड़े,
लड़ते  हैं आपस में ये साँप और सीढ़ियाँ

मैं  पासे फेंकता हूँ
और चलता जाता हूँ ,
बस  ऊपर-नीचे होता रहता हूँ ,
क्या करूँ इसके बाहर कूद भी नहीं सकता,
दिन रात उलझाए रहते हैं
मुझे ये साँप और सीढ़ियाँ ....
...रजनीश (18.04.11)

4 comments:

Yashwant R. B. Mathur said...

जीवन का खेल भी सांप सीढ़ी के खेल जैसा ही है.

सादर

Shah Nawaz said...

बेहतरीन अभिव्यक्ति है!

mridula pradhan said...

bahut achchi lagi aapki likhi kavita...

Kavita Prasad said...

जहाँ न पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि|

अच्छा व्यंग है, प्रस्तुतीकरण उल्लेखनीय है|

बधाई...

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