(अपनी एक पुरानी रचना --कुछ शेर फिर से )
कैद हो ना सकेगी बेईमानी चंद सलाखों के पीछे
घर ईमानदारी के बनें तो कुछ बात बन जाए
मिट सकेगा ना अंधेरा कोठरी में बंद करने पर
गर एक दिया वहीं जले तो कुछ बात बन जाए
ना खत्म होगा फांसी से कत्लेआमों का सिलसिला
इंसानियत के फूल खिलें तो कुछ बात बन जाए
बस तुम कहो और हम सुने है ये नहीं इंसाफ
हम भी कहें तुम भी सुनो तो कुछ बात बन जाए
हम चलें तुम ना चलो तो है धोखा रिश्तेदारी में
थोड़ा तुम चलो थोड़ा हम चलें तो कुछ बात बन जाए
...रजनीश
बारिश से धुले
चमकते पत्तों पर
उतरी
धूप
फिसल कर
छा जाती है
नीचे उग आई
हरी भरी चादर पर
बादल रुक जाते हैं
और हल्की ठंडी
हवा के झोंकों में
कुछ दिनों से
प्यास बुझाती धरती
करती है थोड़ा आराम
ये धूप किसी के
कहने पर आ गई थी
वो सम्हालता अपना
उजड़ा आशियाना
कोई तानता
अपनी छत दुबारा
जो धरती पी न सकी
वो धाराओं में बह गया
और ले गया साथ
कुछ का सब कुछ
ये सब करते हैं
धूप का शुक्रिया अदा
और
कोई धूप को
देख
करता था रुख
बादलों की ओर
बार-बार और कहता था
कि तुम रुक क्यूँ गए
कि अभी तक
नहीं पहुंचा पानी
पोरों में,
और फूटे नहीं हैं
अंकुर अभी बीजों में
फिर धूप से कहता था
तुम क्यूँ आ गईं
वहीं कोई बेखबर
इस धूप से बस यूं ही
चला जाता है और
पानी से भी
नहीं पड़ता उसे कोई फर्क
इन्हें कर लिया है उसने बस में
वही धूप वही बादल
वही पत्ते वही पानी , पर
एक सुबह का एहसास
हर किसी के लिए
अलग-अलग होता है
....रजनीश (29.06.2012)
हिस्सा हूँ एक दौड़ का
एक ऐसी दौड़
जिसमें शामिल हैं सभी
ऐसी दौड़ का
जिसकी ना शुरुआत का पता है
ना ही इसकी मंज़िल का
मैंने भी कहीं से शुरू किया
और पहुंचूंगा किसी जगह
पर दौड़ का रास्ता तय नहीं
सब अपनी अपनी
सलीब लिए
अपने अपने रास्तों में
बदहवासी में
बस दौड़े चले जाते हैं
टकरा जाते है
भिड़ भी जाते हैं
जहां रास्ते कटते हैं
या फिर वहाँ
जहां
रास्ते मिल जाते हैं
और जगह नहीं होती
साथ दौड़ने की
कई लोगों को देखा है
हाँफते हुए खुद को समेटते हुए
और तेजी से दौड़ते
गिरते पड़ते खुद को संभालते
औरों को रौदते
दौड़ लगाते
पर सभी दौडते दौड़ते ही खप गए
दौड़ तो पूरी नहीं हुई
अब तक
किसी ने कहा
तुम जिस रास्ते पर दौड़ रहे हो
तुम्हें इसी में ही दौड़ना था
पर कब तय हुआ ये
मुझे तो लगा जैसे
किसी ने समय दिया है मुझे
कि इस अंतराल में
जिधर दौड़ना चाहते हो
जिस ओर भी
दौड़ लो
बस दौड़ सकते हो तुम
हालांकि कितना समय
ये मैं नहीं जानता
एक अजीब सी बेचैनी
एक रहस्य एक रोमांच
एक ऐसी दौड़
जो हर तरफ हर समय
हर कहीं
चलती है
एक अंधी दौड़
रह भी नहीं सकता
एक जगह लगातार
दौड़ते हुए मैंने देखा
कि मेरा मुक़ाबला भी मुझसे ही है
मैं खुद दौड़ता हूँ
अपने आप को दौड़ाना
मेरी नियति है ....
......रजनीश (26.06.12)
एक ज़िंदगी
को बचाने किए
लाखों जतन
लड़ गए समय से
झोंक दिया अपना तन-मन
दिन -रात एक किया
और दिखाया जज़्बा
अपनी कौम को बचाने का
मुसीबतजदा के काम आने का ...
पर जिसने
खोदा गड्ढा
वो भी इंसान था
खुद्गर्जी और लालच में
जो बन गया शैतान था
गड्ढे की हैवानियत में
फंसी इंसानियत
घुटती रही
लंबी चली जंग में
एक ज़िंदगी पुकारती रही
हैवानियत थी बुलंद
इंसानियत हारती रही
जिंदगी फिर हार गई
सब रिश्ते तोड़ गई
शहरवालों के लिए
पर एक सबक छोड़ गई ...
.....रजनीश (24.06.2012)
दर्द की बूंदें
बरस बरस
भिगोती रहीं
उस छत को
जो बनाई थी
भरोसे के गारे से
समाता रहा
पानी
छत से रिस-रिस कर
रिश्तों की दीवारों में
कुछ धूल की परतें धुलीं
कुछ पानी रिसकर
मेरी जड़ों में भी गया
फिर सूख गए सोते दर्द के
वक़्त के झोंके
उड़ा ले गए बादलों को
धूप भी आ गई
उतरकर पेड़ों से
पर दरारों में
जमा है
पानी अब भी
सीलन
मेरे कमरे में
अब भी मौजूद है ....
....रजनीश (21.06.2012)
बारिश की बूंदें
गरम तवे सी जमीं पर
छन्न से गिर गिर
भाप हो जाती हैं
हवा की तपिश
हवा हो जाती है
पहली बारिश में
जैसे कोई अपना
बरसों इंतज़ार करा
छम्म से सामने
आ गया हो अचानक
बह जाती है सारी जलन
बूंदों से बने दरिया में
पर तपिश की जगह
बैठ जाती है आकर
एक बैचेनी एक तकलीफ
जैसे एक रिश्ता दे रहा हो
आँखों को ठंडक
छोड़ दिल में एक भारीपन
रिश्तों की उमस का एहसास
बारिश के दिनों
बार बार होता रहता है
जिन्हें बुलाया था
मिन्नते कर
उन्हीं बादलों के
छंटने का इंतज़ार
कराती है एक उमस
बरसात के दिनों
और रिश्तों की उलझनों में
जो देता है ठंडक
वही उमस क्यूँ देता है...
.....(रजनीश 17.06.12)
गरम लू के थपेड़ों में
झुलस जाते हैं कुछ अरमान
भाप हो जाती हैं
कुछ ख़्वाहिशें
वक़्त बन जाता है
अंगारों भरी सड़क
जलता है फ़र्श
और तपती हैं दीवारें
झील सूख कर
बन जाती है आईना
ख़ुश्क हवा के हथौड़े
बदन को लाल कर देते हैं
गरम पलकों के घर
में रहते आँसू भी सूख जाते हैं
मर जाएँ कुछ ख्वाहिशें
अधूरे पड़े रहें अरमान
पर सूरज की किरणें
झुलसा नहीं पाती
मन की दीवारों को
क्यूंकि वहाँ मौसम
पर न कोई क़ाबू है
न कोई बंधन
कभी भी बारिश और
कभी भी जलन
और सूरज के कहर से
भाप नहीं हो पाती
पेट की भूख
जिसके लिए
मौसम की इस तपिश में
हाथों को बार बार
झुलसते देखा है
इसीलिए किसी के लिए
ये गर्मी है एक दर्द
और किसी के जीने का सहारा
....रजनीश (03.06.2012)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....