Tuesday, February 26, 2013

एक ख़ोज


सपनों की फेहरिस्त लिए 
रोज़ चली आती है रात 
गुजार देते है उसे, ढूंढते 
फेहरिस्त में अपना सपना 

कुछ तारों को तोड़ रात 
कल सोये साथ लेकर हम 
 गुम हुए सुबह की धूप में 
जैसे गया था बचपन अपना 

हर गली से गुजरते जाते हैं 
 लिए हाथों में तस्वीर अपनी 
अपनों के इस वीरान शहर में 
बस ढूंढते रहते हैं कोई अपना 

कुछ दिल उतर आया था
लाइनों में बसी इबारत में 
लिफ़ाफ़े पर कभी उसका 
कभी पता लिख देते है अपना 

चलते हैं कहीं पहुँचते नहीं 
थका देते ये पथरीले रस्ते 
रस्ता ही तो है वो मंज़िल 
  ज़िंदगी है हरदम चलना 

......रजनीश (26.02.2013)

5 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सच है रास्ता ही मंजिल है...... बहुत सुंदर

प्रवीण पाण्डेय said...

रात जब भी गहराती है, बहुत डराती है।

Anita said...

मुसाफिर है हर इंसान और यात्रा है जिंदगी..सुंदर भाव !

Onkar said...

सच, जीवन चलने का नाम

रचना दीक्षित said...

सपनों की फेहरिस्त लिये
रोज चली आती है रात
गुजार देते है उसे ढूंढते
फेहरिस्त में अपना सपना.

बहुत सुंदर भावपूर्ण कविता.

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....